हृदय में ज्ञान का दीप मौन में ही जलता है – In Silence Alone Dawns the True Knowledge

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Editor’s Note: As mentioned in our previous issue, we now hope to incorporate one offering in Hindi in every issue. Through this beautifully penned reflective piece, the author reminds us of the need to cultivate a deep inner silence if we aspire to grow in deeper knowledge and get closer to the Divine. She also emphasizes that a sincere devotion and surrender to the Guru are essential because only through the Grace of the Guru, an aspirant can progress in sadhana.

This writing reminds one of the Mother’s assurance:

“My dear child, you have to find the peace, the silence and the solitude within yourself, and in that solitude you will become conscious of my presence.”

~ The Mother, CWM, Vol. 17, p. 125

जैसे जैसे वृत्ति अंतर्मुखी होती है, जैसे जैसे यात्रा अंदर की ओर शुरू होती है, वैसे वैसे साधक को एकांत में रहना पसंद आने लगता है। जब व्यक्ति जाप में आनंद अनुभव करता है तो वो स्वयं ही मौन में चला जाता है, उसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता। वो मौन में आनंद रस पान करता है।इसमें कहने सुनने की बात नहीं रहती। उसे लोगों के ना तो कड़वे शब्द चुभते हैं, ना ही मीठे बोल बहुत अधिक सुहाते हैं। उसके तार तो हर वक्त अपने परम प्रेमी परमात्मा के साथ जुड़े होते हैं।

वो श्याम सांवरे को रिझाता है और वे उसे। अनदेखे धागों में वो उनके साथ बंध जाता है। 

जब रोम रोम में नारायण विद्यमान हो जाएं, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में वही हों, विचार में वो, हर स्वांस में वो, धड़कन में भी वही, साधक की चाह में वो, उसकी हंसी में वो, अश्रु की धार में वो, उसके बाजुओं की ताक़त में भी वही और वाणी में भी उसके आत्म देव, उसके नारायण हाज़िर हों, जब उसके परमात्म प्रेम का प्याला छलक जाए तब व्यक्ति मौन में ही रहना पसंद करता है।

जब व्यक्ति तमोगुण, रजोगुण को जीतता हुआ सतोगुण में प्रवेश करता है और फिर धीरे धीरे निर्गुण परमात्मा में विराजमान होते हुए, उन के साथ एकता हो जाती है तो मौन की स्थिति हो जाती है। उस अनंत, अनादि से मुलाकात मौन में ही होती है। साजन और सजनी मौन में एक हो जाते हैं।मूक होता है वो किंतु प्रफुल्लित रहता है, अंतर्मन में पिया से मीठा मिलन हो रहा होता है। अब वो दो  नहीं रह जाते, एक हो जाते हैं।

एक खामोशी होती है, 
एक भक्त और एक भगवान, 
दोनों एक दूजे से ही सुनते और सुनाते हैं।

अब भक्त को कोई फासला तय नहीं करना, अब किसी से मिलने की कोई चाहत नहीं, अब कुछ प्राप्त करने हेतु नहीं रह गया, जीवन धन्य हो गया। सुकून की तलाश खत्म हो जाती है। वो तो सदैव मस्त रहता है अपनी ही झांकी देखने में, अपनी ही मस्ती छकने में, जीवन ऐसे ही मस्त राहों पर व्यतीत होता है, वो प्रभु का और प्रभु उसके। ऐसी सुंदर स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें लानी है पात्रता, संजोने हैं गुण। ना जाने कौन से गुण पर दयानिधि रीझ जाते हैं।

हृदय में ज्ञान का दीप मौन में ही जलता है।

जो उजाले बिखेरे मेरी 
अंधेरी राहों पर हरदम
वो कहीं और नहीं 
मेरे अंदर रौशन 
आफताब हो तुम

उस अनिर्वचनीय तत्व का बोध जिस दिन हो जाता है जो कि वाणी तो क्या, बुद्धि से भी परे है, उस दिन हम स्थिर हो जाएंगे, मूक होकर सारे तमाशे के दृष्टा बन जायेंगे, अपने आप को भी इस रंगमंच के एक पात्र के रूप में देखेंगे । मौन में उस अपार चेतन शक्ति के साथ जुड़ने पर हमें अपने बारे में कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं रह जाती और हम सर्वथा आनंद में ही रहते हैं।

खामोशियों में जब हम नारायण को पुकारते हैं, तो उन्हें आना ही पड़ता है। तब हर दरख्वास्त खुद-ब-खुद खुदा तक पहुंच जाती है।

परमात्मा साधक को मौन में ही संकेत देते हैं, उसे गलत सही बताते हैं, उसका मार्गदर्शन करते हैं। साधक धीरे धीरे उनके संकेतों को समझना सीख लेता है।और तो और, मौन में ही हमें पता चलता है कि कोई कष्ट हम पर क्यों आया है, हमसे जाने अनजाने क्या भूल हुई है?

हम यह भी समझ जाते हैं कि परमेश्वर हमसे वही काम करवा रहे हैं जो वो करवाना चाहते हैं। हम बन जाते हैं सिर्फ हाड़ मांस का एक यंत्र जो केवल उन्हीं के इशारों पर चलता है।प्रभु जो काम हमसे नहीं करवाना चाहते, उसके बारे में हमें अंदर ही अंदर पता चल जाता है।

नाम रूपी बीज का पौधा बनना, वृक्ष बनना, उसपर फल और फूल आना मौन में ही संभव है।

मौन में इस मन की अधीरता समाप्त हो जाती है और हृदय में संकल्प और विकल्प  नहीं उठते। रात चाहे कितनी भी लंबी हो, भीतर एक दीपक हमेशा मौन में टिमटिमाता रहता है।

साधक की अनुभूति तो गूंगे के गुड की तरह होती है जो आनंद का स्वाद तो ले रहा है किंतु उसका व्याख्यान कर पाने में उसकी वाणी असमर्थ है।

जैसे कोई राजा रणभूमि से जीतने के बाद अपने अस्त्र शस्त्र उतारकर शयन करते हैं, ठीक वही परम शांति भगवत प्राप्ति के बाद मौन में होती है। यह निर्विकल्पता की स्थिति है।इसमें न कोई प्रार्थना है, ना आरती, ना याचना।

एक पूरी दुनियां ही बसती है अंदर जिसके दर्शन मौन में ही होते हैं। चेहरे पर मुस्कुराहट लिए साधक के हृदय में मौन में अजपा जाप (सहज सुमिरन) चलता रहता है।

भगवत प्राप्ति कोई सरल कार्य नहीं।

हम सब जानते हैं कि यहां तक पहुंचने के लिए, इस मौन की स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें बहुत काम करना है। प्रतिदिन एवं दीर्घकाल तक साधना करनी है। आइए, हम सब, कभी भी अधीर न होते हुए तथा पूरी श्रद्धा से इस साधना के मार्ग पर अग्रसर होवें। परमात्मा के साथ एकरूपता में तो अनेकों जन्म भी लग सकते हैं। पिछले जन्मों की साधना की कमाई हमारे साथ इस जन्म में आती है और इस जन्म की कमाई हम अपने साथ आगे ले कर जाते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बिना गुरु कृपा के, मन ईश्वर में स्थित ही नहीं हो पाता इसलिए गुरुदेव की कृपा अति आवश्यक है। सत्यनिष्ठ होते हुए, सत्कर्म और स्वाध्याय करते हुए हमें गुरुदेव को पूर्ण आत्मसमर्पण करना है। संकट तो जीवन में आयेंगे ही, कठिन परिस्थितियां कदम कदम पर दस्तक देंगी। ऐसे में हमारा विश्वास डगमगाए नहीं, निरंतर गुरुदेव के साथ हम जुड़े रहें, अपने कर्मों पर लगातार दृष्टि रखें कि कहीं जाने अनजाने हमसे कोई भूल तो नहीं हो रही?

मौन में जाने के लिए सर्वप्रथम अपने मन का शांत होना अति आवश्यक है और उपासना से चंचलता पूरी तरह निवृत्त हो जाती है।

एकांत, यानी कि जहां एक में सब अंत हो जाए। मौन में उपासक की यह स्थिति होती है कि 

प्राण भए कान्ह मय और
कान्ह भए प्राण मय 
अब जान नहिं पड़त है कि 
प्राण है कि कान्ह है 

हमारे ऋषि मुनि कह गए हैं कि परमात्मा के साथ तार जोड़ने के लिए हमें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। अपने आसन पर विराजमान होकर, अपने सदा के साथी, उस अविनाशी ईश्वर के सामीप्य का अनुभव करना है, वही हमारा परम मित्र है, उसी के हर पल दर्शन करने हैं।

मिलन के पश्चात एक अजीब सी बेफिक्री आ जाती है। सारे कर्म कांडों से छुटकारा मिल जाता है। पूर्ण को पाकर पूर्ण हो जाते हैं।

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