वो जो ब्रह्मांड सजाता है, वही तो लटें संवारता है Of Cosmos and Curl (Transl)

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Volume V, Issue 4
Author: Beloo Mehra (transl. Dimple Chhabra)

Editor’s Note: Deeply moved and inspired by the last month’s editorial, a reader generously offered to translate it in Hindi. She did it for her delight, and shared it with us. And we liked, both the gesture and her translation so much that we invited her to write for us in Hindi as and when she can find time. To which she instantly agreed.

As our pool of writers continues to expand, we are happy to welcome Dimple Chhabra and include her translation in this month’s issue as her first offering. Moving forward, we will try to include minimum of one article/poem or other inspiring write-up in Hindi in every issue. We also take this opportunity and invite other aspiring authors who express themselves through the beautiful language of Hindi to contribute to Renaissance.

श्री अरविंद की अविस्मरणीय कविता Who / “कौन” की ये मनमोहक पंक्तियां भला कौन भूल सकता है!

वह हस्त जो स्वर्ग में घूमने हेतु बृहस्पति को करता प्रेषित,
एक लट को रूप देने के लिए लगा देता अपना सकल कौशल।

~ श्री अरविंद

यद्यपि हर एक बार पढ़ने पर मुझे यह कविता आनंद विभोर कर देती है तथापि ये दो पंक्तियां तो विशेष रूप से मेरे रोम रोम को आनंदित करती हैं।

श्री अरविंद, एक महर्षि, कवि एवं सावित्री मंत्र के प्रदाता, इन दो पंक्तियों से नारायण की एक ऐसी छवि हमारे सम्मुख प्रस्तुत करते हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि परमात्मा हमसे कहीं दूर नहीं। वे यहीं हैं, हमारे साथ, हमारे भीतर। वास्तव में यह उन्हीं का हाथ है जो हमारे केश सजाता है, हमारी उलझी लटों को संवारता है। वही हाथ ब्रहस्पति एवं अन्य सभी ग्रहों को, उनकी धुरी पर घुमाता उन्हें सर्वप्रथम ब्रह्मांड में स्थापित करता है और फिर एक निर्धारित कक्षा में परिक्रमा करवाता है।

घट घट व्यापी, अंतर्यामी, न केवल ब्रह्मांड का रचयिता है अपितु सभी आकाश गंगाओं को नियमों में बांध कर रखता है। वह अनादि,अनंत उसी नित्यता से तुम्हारे हाथों द्वारा तुम्हारे बाल बनाता है।

किंतु हम परमात्मा की सत्यता को रोज़मर्रा की जिंदगी में भूल जाते हैं।

दैनिक दिनचर्या, जिंदगी की दौड़, मन की हलचल और पदार्थों के संपर्क में उलझकर ,केवल उस वक्त परमात्मा को याद करते हैं जब इन सब से निश्चय पूर्वक दूरी बनाते हुए उसके साथ संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं। किंतु तब हम ईश्वर को एक अलग इकाई मान लेते हैं, जबकि यथार्थ यह है कि वो अलग नहीं है क्योंकि उस एक के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। हम उस ईश्वर से संपर्क बनाने की कोशिश करते हैं जो इस सारे प्रपंच से, इस सारी चंचलता से अलग, कहीं दूर विराजमान है।

हमारे ऋषि मुनियों ने उस विधाता को देखा है और उसके बारे में बात भी की है जो प्रकृति से परे है।

परंतु उन्होंने उस भगवान का भी गुणगान किया है जो संपूर्ण जगत में जड़ एवं चेतन रूप से विराजमान है। वो जो इस सबसे अलग नहीं, किंतु इस सब का हेतु है, इस सब में ताने बाने के धागे के रूप में बैठा है, जो अखिल ब्रह्मांड नायक है, घट घट व्यापी है, वो जो निज आत्म स्वरूप है, वो जो तीनों लोकों के कण कण में विराजमान है।

तो फिर ये कोई आश्चर्यजनक बात नहीं कि जो ईश्वर सभी ग्रहों की गति निर्धारित करता है, वही मुझमें, तुझमें, सत्ता और स्फूर्ति देता हुआ मेरे और तुम्हारे बाल बनाता है तथा मुझसे और तुमसे खाना बनवाता है।

उस कली में भी वही है जो खिल कर फूल बनी और फिर मुरझा कर गिर पड़ी, फूल के नमूने में, उसके प्रतिरूप में और खुशबू में भी वही है, पेड़ में भी वही, बीज में भी वही, उस मिट्टी में भी वही जहां बीज पड़े, जहां से वृक्ष निकला। मेरे द्वारा लिखे गए शब्दों में, मिटाए गए शब्दों में और उस प्रेरणा में भी वही जिससे मैं यह सब लिख पा रही हूँ। शब्दों और अक्षरों के बीच की खाली जगहों में भी वही है। उस मौन में भी वही है जो शब्दों द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता।

हमारे ऋषि मुनियों ने उस परम शक्ति, उस तत्त्व को जो नाम दिया वह है – ब्रह्म।

ब्रह्म ही हर वस्तु का एकमात्र निमित्त है, कारण है। वही सर्वव्यापक और सर्वत्र है। वही जीव, जगत और प्रकृति सब की वास्तविकता है। वही परम सत्य है, वह अनिर्वचनीय है और संपूर्ण ब्रह्मांड को धारण किए हुए है।

ब्रह्म ही वो चेतना है जो सब कुछ जानती है, ब्रह्म ही ईश्वरीय शक्ति है जो देवताओं, मनुष्यों और दानवों के पास है, जो पशुओं में और पक्षियों में विद्यमान है, जो प्रकृति के अनेक रूपों में दृष्टिगोचर हो रही है, ब्रह्म ही आनंद है, ब्रह्म ही जीव की उत्पत्ति, पालन और विनाश का हेतु है, जिसके बिना हम एक श्वांस भी नहीं ले सकते, ब्रह्म ही हम में आत्मा के रूप में विराजमान है, ब्रह्म ही अनेकों शरीरों का रूप धारण कर लेता है।

उपनिषद प्रमाणित करते हैं कि सर्वत्र ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं। बुद्धि ब्रह्म है, जगत ब्रह्म है, वायु ब्रह्म है। मनुष्य, शैतान, पक्षी, कीट,पतंगे भी ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं।

ईश्वर अपनी ही योग माया से जगत का निर्माण करता है।वही चेतना है,आत्मा है,पुरुष है और अपने स्वभाव के कारण एक से अनेक रूपों में भासित हो रहा है।

वही ईश है,वही सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, सबका शासक है और सबको प्रकाशित करने वाला है।

चराचर जगत में, चल अचल में खुद ही समाया है। अपनी चेतन शक्ति से वह पूरे ब्रह्मांड को अनुशासन में रखता है। यही प्रकृति के रूप में जाना जाता है, यही पुरुष है, यही ईश्वर है।

एक वृद्ध व्यक्ति में जो ब्रह्म है वही ब्रह्म एक छोटे बालक और बालिका में है। ब्रह्म देश, काल और वस्तु से परे है। ब्रह्म ही एकमात्र पुरुष है जो जगत एवं प्रकृति को पूर्ण नियंत्रण में रखता है। वो अनादि, अनंत है, सभी का मूल कारण है और परिणाम भी वही है। वही विचार में है और वही विचार करने वाले में। ध्याता, ध्येय और ध्यान तीनों में वही है। दृष्टा, दृश्य और दर्शन इन तीनों में भी वही है। यही त्रिपुटी हमें लय करनी है। योद्धा और उसकी वीरता में वही तो है। जुआरी और उसके फेंके गए पासे में भी वही है।

ब्रह्म ही ईश्वर होकर विराजमान है, वही जीवात्मा रूप से जीवों में विद्यमान है। वही कर्मेंद्रियों, ज्ञानेंद्रियों, प्राण, अंतःकरण रूप से भास रहा है, वही हमारे जीवन में कष्टों के रूप मे प्रकट होता है। वही हमारे सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश का हेतु है और दुनियां भर की हर परिस्थिति को जन्म देने वाला और उस से उबारने वाला है।

जो पिंडे सो ब्रह्मांडे

जैसी विधाता की प्रक्रिया इस शरीर के लिए चल रही है, ठीक वैसी ही संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए लागू होती है।

पृथ्वी पर मानुष जीवन ही एक ऐसा जीवन है जिसमें परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है, परमात्मा के साथ एकरूपता एवं आत्म साक्षात्कार हो सकता है।

इसीलिए श्री अरबिंदो एवं श्री मां जी की शिक्षा में कभी भी मनुष्य जीवन का तिरस्कार नहीं किया गया। उन्होंने हमेशां मानुष के संपूर्ण विकास पर ज़ोर दिया है ताकि वह ईश्वरीय यंत्र बनकर उसकी इच्छा को पूर्ण करे एवं अपनी मुक्ति का प्रयास करे।

इसी तरह की समग्र पद्वति अपनाने से हम सब भेदों से मुक्ति पा सकेंगे — जीव और जगत का भेद, जीवों का परस्पर भेद, जगत और ईश्वर का भेद, जगत के विभिन्न पदार्थों का भेद, एवं ईश्वर और जीव का भेद। तथा तीनों गुणों – तमोगुण, रजोगुण एवं सतोगुण से ऊपर उठकर निर्गुण में विराजमान हो पाएंगे। इसी को साधना का मार्ग कहते हैं।

Read the English version HERE.

~ Design: Beloo Mehra

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