Volume V, Issue 6-7
Author: Dimple Chhabra
Editor’s note: This poem in Hindi speaks of the aspirant’s yearning for that Silence and Solitude in which she can constantly stay connected with the Divine. Are such moments of silence and solitude only dependent on the external factors? Or can those be created within while living in the outer life and world as is? This is not merely a theoretical dilemma but rather the starting point of actual work that must be done by each aspirant on the path of Integral Yoga.
In the silence of our heart there is always peace and joy.
~ The Mother, CWM, Vol. 14, p. 142
हमारे हृदय की नीरवता में हमेशा शान्ति और आनन्द का निवास होता है।
चल, आज कहीं चुपचाप जा बैठें
ए मनवा, चल आज कहीं चुपचाप जा बैठें।
संसार के झंझटों से, खुद को अलग कर बैठें।।
इस मैं, तू, मेरे, तेरे के कोलाहल में बधिर बन बैठें।
जिंदगी की भीड़भाड़ से खुद को चुरा कर बैठें।।
भीतर की यात्रा कहीं धीमी ना पड़ जाए,
नेत्र बंद कर लेवें, अंतर से तार मिला कर बैठें।
इन धड़कनों ,सांसों की मधुर झंकार सुनने बैठें।
अनेक से एक की ओर, हम अग्रसर हो बैठें।।
परम शांति का अमृत, घूंट घूंट पीने बैठें,
निज आत्मस्वरूप के दर्शन क्षण क्षण करने बैठें।
अंतर जलती दिव्य ज्योत से जगमगा हो बैठें।
हर होनी में उसकी मर्जी को मान कर बैठें।।
सारी व्यथा समाप्त होगी, जो हम रोज यूं मौन बैठें।
रोम रोम से नाम रस फूटेगा, जो हम रोज यूं मौन बैठें।।
गुरु ज्ञान परवान चढ़ेगा, जो हम रोज यूं मौन बैठें।
प्रेम खुमारी खूब चढ़ेगी, जो हम रोज यूं मौन बैठें।।