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पॉन्डिचेरी डायरी: तीसरी क़िस्त
योग क्या है?
योग मानवता के लिए भारत की सबसे बड़ी मौलिक और अनुपम देनों में एक है, हालाँकि रहस्यवाद, प्रकृतिपूजा और गुह्यविद्या (occultism) आदि रूपों में इसका थोड़ा-बहुत अभ्यास पूरी दुनिया में प्रचलित रहा है।
लेकिन मूलतः योग को भारत का विश्व के लिए मौलिक योगदान माना जाता है। स्वाभाविक है कि योग के मूल स्वरूप, साधना, अभ्यास और जीवन में उसकी सही अभिव्यक्ति की जिम्मेदारी भी भारत की है। मुझे लगता है कि अभी तक हम अपने इस दायित्व में असफल रहे हैं।
हमारे समय का सबसे बड़ा आध्यात्मिक अपराध यह है कि हमने शारीरिक कसरत, व्यायाम, शरीर की सुडौलता और लोचकता को ही ‘योग’ के रूप में स्थापित कर दिया गया है। यानी आज हमारे लिए योग का केवल और केवल एक ही अर्थ हो गया है और वह है नाना प्रकार के आसनों में हमारी महारथ हासिल करना और शरीर की लोचकता प्राप्त करना! आज सुबह भी हम अपनी इसी महारथ का प्रदर्शन योग के नाम से करेंगे। उससे आगे की चर्चा न नेता करेंगे और न योग के पंजीकृत साधक।
जिन मित्रों के लिए योग आसन मात्र है वे बताएं — शारीरिक सुडौलता और लोचकता ही योग है तो क्या रूसी जिमनास्ट और WWE के पहलवानों (वस्तुतः इन्हें लड़ाके कहना ज़्यादा अच्छा रहेगा) को भी ‘योगी’ कहा जाना चाहिए, क्योंकि शरीर की सुडौलता और लोचकता में उनका कोई सानी नहीं है? लेकिन आप चाहकर भी इन्हें योगी नहीं कह सकते क्योंकि माचो (macho) हो जाना योगी होना नहीं होता है।
शरीर एक माध्यम है, निश्चित रूप से उसका स्वस्थ होना जरूरी है और इस दृष्टि से आसन और प्राणायाम बुरे नहीं हैं। लेकिन अष्टांग योग की दृष्टि से भी देखें तो भी दो अनुशासन (यम, नियम) आसन से पहले और पाँच अनुशासन (प्राणायाम , प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) उसके बाद आते हैं। इन सभी की सज़ग अनुभूति व्यक्ति को योग के द्वार पर ले जाती है।
आप यह भी कह सकते हैं कि शरीर चेतना से आत्म चेतना तक उठ जाने का नाम ही योग है।
योग व्यक्ति चेतना में विश्व चेतना के अवतरण और उसकी ठोस अनुभूति का नाम है, सीमित में असीमित की अनुभूति, खंडित व्यक्तित्व में पूर्ण पुरुषोत्तम की अभिव्यक्ति और दुनिया के चेहरे पर सर्वत्र उनकी चित्तचोर मुस्कुराहट को देख लेना ही योग है। जिस व्यक्ति के पास यह अनुभूति नहीं है और जो अपने इस आनंद को दूसरे ग्रहणशील लोगों तक नहीं पहुँचा सकता, उसे योगी नहीं कहा जा सकता है।
आप यह भी समझ सकते हैं कि योग “करने” की चीज़ नहीं, “होने या बनने” की चीज़ है। योग साधना हम नहीं करते हैं बल्कि हमारी पात्रता के आधार और अनुपात में ईश्वर की शक्ति हमारे माध्यम से करती है। श्री माताजी ने श्री अरविन्द सोसाइटी के लिए जो आदर्श ध्येय वाक्य चुना है वह है:
जानना अच्छा है, जीना और भी अच्छा है , ‘वही बन जाना’– यही पूर्णता है।
To know is good, to live is better, to be, that is perfect.
~ The Mother, CWM, Vol. 15, p. 173
बीमारी, भय, जीवन दृष्टि शैली से उपजे अवसाद और महामारी ने आज के मनुष्य को बुरी तरह भयभीत कर दिया है। अपने भय और अवसाद के निदान के लिए वह योग की शरण में आता है। लेकिन केवल शरीर को ही सब कुछ मानने वालों ने उसकी अशांति और बेचैनी का इलाज़ करने के बजाय उसे और भयभीत कर दिया है। योग के कारण हमें स्वयं के साथ साथ बाज़ार को समझने की सही दृष्टि प्राप्त होनी थी लेकिन अफ़सोस हमने योग को ही बाज़ार बना दिया।
आधे घंटे में कुंडली जागरण और एक दिन में निर्वाण परोसने वाले अनगिनत स्कूल्स और उनके उस्ताद (“मास्टर्स”) आदमी के इस डर को , शरीर से अंध आसक्ति को दुधारू पशु की तरह दोह रहे हैं। यदि बाज़ार का दबाव न होता तो योग की कथित राजधानी ऋषिकेश में थाई मसाज की ज़रूरत क्या थी!
योगी और संत इस धरती पर भगवान के दूत होते हैं, स्वाभाविक रूप से संसार की पीड़ा उनकी अपनी पीड़ा और संसार की व्याधि अपनी व्याधि हो जाती है।
श्री विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम “महातप” है, वे संसार की पीड़ा को कम करने के लिए तप कर रहे हैं। श्री बद्रीनाथ में सुबह के अभिषेक के बाद रावल जी भगवान के विग्रह की नाभि पर चंदन का लेप करते हैं (शाम को उसे भक्तों को दिखाते हैं)। इसके पीछे भावना यह है कि जगत के आप-तापों के कारण भगवान का शरीर अपार ताप से भर जाता है और उस ताप से उन्हें शीतलता प्रदान करने के लिए चंदन का लेप लगाया जाता है। ययही ताप संत और योगी भी झेलते आये हैं।
योगी, संत और महात्मा भी संसार की पीड़ा ,अभाव, ग़ुरबत और दूसरी परेशानियों को अपनी परेशानी मानकर उनका निदान करते हैं। तुलसीदास जी ने ठीक लिखा है :
निज परताप द्रवहि नवनीता
परदुख द्रवहि संत सुपुनीता ।।
दूसरे के दुःख संतों को सोने नहीं देते।
“दुखिया दास कबीर” इसीलिए गा रहा है और रो रहा है जबकि पशु की तरह अपना पेट भरने वाला संसार, दूसरों की पीड़ा से बेख़बर रहने वाला संसार मज़े से खा रहा है और सो रहा है।
तो मित्रो, अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर खूब आसन करो लेकिन वहीं पर मत रुको। उस तत्व को भी खोजो जो गले के कैंसर से पीड़ित रामकृष्ण परमहंस ने तार्किक युवा नरेन को केवल छूकर समझाया था। उन रहस्यों की भी तलाश करो जिनका वर्णन परमहंस योगानन्द ने अपनी अनुपम किताब “योगी कथामृत” में किया है। उस आनंद के स्रोत को भी खोजो जो स्वामी रामतीर्थ और स्वामी शिवानंद ने अपनी कविताओं में छोड़ा है। हिमालय की धवल निर्मलता में संतों और योगियों के उस संग साथ को भी खोजो जिसका ज़िक्र स्वामी राम ने अपनी किताब Living with Himalayan Masters और पंडित श्री राम शर्मा आचार्य ने अपनी पुस्तक “सुनसान के सहचर” में किया है।
केवल शरीर को साधोगे तो अष्टावक्र नहीं बन पाओगे! समझ के उस आकाश तक नहीं पहुंचोगे जिसे ताओ और मिखाइल नईमी ने ‘ताओ ते चिंग’ और “किताब-ए-मीरदाद’ में छुआ है। आसन करके ही बैठ जाओगे तो योग की उस पराकाष्ठा पर नहीं पहुंचोगे जहाँ जाकर महायोगी श्री अरविन्द ने कहा था — “सारा जीवन ही योग है!”
आप साधक और योगी ही हैं यदि अपने आसपास के लोगों के प्रति प्रेम और प्रार्थना से भरे हुए हैं। यदि आपमें करुणा है, भूख, भय और ग़ुरबत को पढ़ने की तर्बियत है, परदुःखकातरता है, स्त्री और प्रकृति के लिए आपके दिल में सम्मान है, अपने अज्ञान और अभिमान के प्रति आप सचेत हैं और आपकी वज़ह से आपके आसपास का समाज सुरक्षित महसूस करता है तो ये आपका मानवता के लिए बहुत बड़ा योगदान है।
पॉन्डिचेरी डायरी : चौथी क़िस्त
श्रीअरविन्द आश्रम में जीवन कैसा है?
पिछले कुछ दशकों में हो रहे कुछ नवीन प्रयोगों को अपवाद मान लिया जाय तो प्रायः “आश्रमों” को लेकर हम भारतीयों की धारणा यही है कि आश्रम ऐसे स्थान होते हैं जहाँ मुख्य सामाजिक जीवन से विरत लोग अपना अधिकांश समय ईश्वर की स्तुति आराधना, यज्ञ-हवन, भजन- कीर्तन और पूजा पाठ में बिताते हैं और इस प्रकार ‘दुनिया से दूर’ अपना समय बिताते हैं।
श्रीअरविन्द आश्रम में क्या-क्या होता है, इससे पहले मेरे दोस्तों का यह जान लेना जरूरी है कि यहाँ क्या-क्या नहीं होता है!
यह आश्रम पूरब के ध्यान और पश्चिम के तर्क में दीक्षित और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के सबसे प्रतिभाशाली छात्र और इंडियन सिविल सर्विस (आज की शब्दावली में आईएएस) की परीक्षा में उत्तीर्ण रहे श्री अरविन्द और कला, ज्ञान और आध्यात्मिक अनुभवों से पूर्ण सिद्ध योगिनी श्री माताजी का आश्रम है। यहाँ पारंपरिक आश्रमों की तरह वाणी से गुरु की जयजयकार नहीं होती, कोई पूजा पाठ नहीं होता, किसी भी तरह का यज्ञ हवन नहीं होता, व्रत, उपासना और भजन कीर्तन भी नहीं होता। यहाँ कोई मंदिर नहीं है और न तिलक प्रसाद की कोई व्यवस्था है, यहाँ कोई किसी को प्रवचन नहीं देता न कोई भव्य प्रवचन कक्ष है। जप, माला और घंटों तक चलने वाले ध्यान का भी कोई चलन नहीं है!
अब तक आपकी जिज्ञासा बढ़नी चाहिए और आपका पहला प्रश्न यह होना चाहिए कि ‘भाई, फ़िर इस आश्रम में होता क्या है?’
मेरा केवल एक ही उत्तर होगा : काम, काम और काम (work, work and only work!)
आप फ़िर से पूछेंगे कि भाई काम तो हम अपने अपने घरों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और कार्यालयों में भी करते हैं फ़िर श्री अरविन्द आश्रम में काम अलग कैसे होता है?
इस पर मेरा उत्तर होगा कि जो काम हम अपने घरों और कार्यालयों में करते हैं वह प्रायः आजीविका के लिए करते हैं, (बड़े अधिकारी तो काम भी नहीं करते वे आम जनता, hoi polloi पर एहसान करते हैं)। प्रायः हमारे काम से हमारे अहंकार का पोषण होता है, कई बार हम काम करते नहीं हैं, केवल “काम करते हुए दिखाई देते हैं” ! कुछ लोग प्रशंसा और पुरस्कारों के लिए काम करते हैं और कुछ विभाग या बड़े साहब को खुश करने के लिए ! और इनमें सबसे बड़ी बात यह है कि हममें से ज़्यादातर लोग अपने काम से प्रेम नहीं करते, इसी कारण काम हमारे लिए आनंद न होकर एक सजा हो जाता है, एक बोझ बन जाता है !
श्री माताजी के अनुसार जीवन में प्रसन्न रहने के लिएअपने काम से प्रेम करना आवश्यक है !
श्रीअरविन्द आश्रम में जो काम होता है उसका मुख्य उद्देश्य होता है अपनी चेतना का विकास करना, काम को इतने अच्छी तरह से करना कि वह गहन पूजा, गुरु-गंभीर आराधना और स्तोत्र बन जाए। यहाँ लोग आजीविका, पुरस्कार, पदोन्नति और सामाजिक प्रभावपूर्णता प्राप्त करने के लिए काम नहीं करते बल्कि इसलिए काम करते हैं क्योंकि उनके मन में प्रतिपल श्री माताजी का यह वचन गुंजित होता है : “सच्ची भावना से किया गया काम ध्यान ही है” और यह मंत्र भी क़ि “काम शरीर से की जाने वाली भगवान की सबसे अच्छी प्रार्थना है “!
आश्रम के निवासियों के लिए इससे बड़ा कोई पुरस्कार नहीं कि उनके काम से श्री माताजी प्रसन्न हो जाएं. . . काम उनके लिए ध्यान हो जाए।
यह “सच्ची भावना” से काम करना क्या है ?
जितना मैं समझ पाया हूँ इसका अर्थ है कि काम को अहंकार के स्थान पर भगवान की आराधना के रूप में करना, चेतना की अभिव्यक्ति के रूप में करना, श्री माँ की प्रसन्नता के लिए करना और कर्ता भाव के अभिमान से ऊपर उठकर करना !
यहाँ आपको 5-10 साल के बच्चे से लेकर 90 साल के कर्मयोगी युवा तक सभी चुस्त दुरुस्त और कर्मरत दिखाई देते हैं, समय की कठोर पाबंदी है और सबको अपने अपने काम मिले हुए हैं। आश्रम के स्थायी निवासियों के लिए शाम को प्लेग्राउंड में व्यायाम करना जरूरी है 15, 20, 40, 60, 80 -90 साल तक के लोगों को पंक्तिबद्ध व्यायाम करते हुए देखना हर्षित करता है। इस लेखक ने देखा है कि प्रायः दूसरे आश्रमों में मुफ़्त का मालपुआ और हलवा पूरी आता है जिसे खाकर मठाधीश सहित आश्रम के चेले बहुत मोटे हो जाते हैं, कुछ तो इतने मोटे हो जाते हैं कि उन्हें खड़ा करने के लिए किरायेदार बुलाने पड़ते हैं! लेकिन इस आश्रम में आपको बुजुर्ग भी फुर्तीले और बिना तोंद वाले, युवा की तरह मिलेंगे जो प्रायः साइकिल से ही चलते हैं।
आश्रम में दर्जनों कुटीर उद्योग हैं जिनमें आश्रमवासी और साधक तो काम करते ही हैं लेकिन उनके अतिरिक्त अच्छी संख्या में स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलता है।
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WORK AND YOGA
श्रीअरविन्द आश्रम में 100 साल का सक्रिय जीवन जीने वालों की एक लंबी लिस्ट है।
वर्ष 2011 में 107 साल के अमल किरण से यह लेखक स्वयं मिला है जिन्होंने आश्रम की मासिक पत्रिका Mother India के संपादन के साथ साथ 60 अन्य क़िताबें लिखीं हैं। यहाँ आदमी उम्र बढ़ने पर भी बूढ़ा नहीं होता क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति कुछ नया करता और सीखता रहता है। यह शाश्वत तारुण्य भाव यहाँ श्री माताजी ने भरा है जिन्होंने बुढ़ापे को नए ढंग से परिभाषित करते हुए कहा — तुम जब तक प्रगति और विकास कर सकते हो, तब तक युवा रहते हो। बूढ़ा होने का अर्थ है प्रगति करने की अक्षमता, कुछ नया करने की भावना का अभाव।
There are young people who are old and there are old people who are young. If you carry in you this flame for progress and transformation, if you are ready to leave everything behind so that you may advance with an alert step, if you are always open to a new progress, a new improvement, a new transformation, then you are eternally young.
But if you sit back satisfied with what has been accomplished, if you have the feeling that you have reached your goal and you have nothing left to do but enjoy the fruit of your efforts, then already more than half your body is in the tomb: it is decrepitude and the true death.
~ The Mother, CWM, Vol. 3, p. 238
इस आश्रम में कोई परीक्षा नहीं है और यही यहाँ की सबके बड़ी अग्निपरीक्षा है!
श्री माताजी बड़ी गहनता से एक एक साधक की गतिविधियों का मूल्यांकन करतीं हैं और आश्रम का एक एक स्थायी निवासी और अतिथि अपने आचरण का लेखा जोखा उन्हीं के पास रखता है। एक बार श्री माताजी ने कहा था “मेरी चेतना में सांस लिए बिना तुम पॉन्डिचेरी में सांस नहीं ले सकते हो “।
प्रायः आश्रम घेराबंदी के भीतर होते हैं, श्री अरविन्द आश्रम की कोई दीवार नहीं है। यह पूरे नगर भर में फैला हुआ है। कहीं नर्सिंग होम है तो कहीं विश्वविद्यालय, कहीं आजादी से पहले स्थापित प्रिंटिंग प्रेस है तो कहीं आश्रम का पेट्रोल पंप। कृषि फॉर्म, भोजनालय, छात्रावास, अतिथिगृह, कलादीर्घा, कार्यशालाएं, फ़ोटो स्टूडियो और प्रकाशन विभाग भी अलग अलग भागों में स्थित हैं। आश्रम में चित्रकला और संगीत के अलग-अलग रूपों पर भी काम हो रहा है। आश्रम के स्कूल और विश्वविद्यालय में मूल्यांकन होता है लेकिन परीक्षा नहीं होती है ! आश्रम के अतिथि भवन भी सर्वत्र फैले हुए हैं।
इस आश्रम में रहने वाला हर व्यक्ति आपको अपने शब्द और मूक आचरण से कुछ न कुछ सिखा जाता है।
आप कह सकते हैं कि इस आश्रम का केंद्र पूरी दुनिया में है और परिधि कहीं नहीं है, सावित्री महाकाव्य की भाषा में कहूँ तो a circle without circumference !
कभी आइए और अपनी आँखों से देखिए अभिनव जीवन के इस अनूठे प्रयोग और सहजीवन की इस प्रयोगशाला को!
समर्पण यहाँ का ध्येय वाक्य है और जीवन मंत्र भी।
अभीप्सा यानी अपने आप को जानने और पाने की प्रबल तड़प प्रवेश की शर्त है और सत्यनिष्ठा एकमात्र सुरक्षा कवच है!
इसलिए पद, प्रभाव और सामाजिक रसूख की अकड़ घर छोड़कर आप यहाँ आएंगे तो यहाँ से ज़्यादा लेकर जाएंगे।
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~ Design: Beloo, Raamkumar and Rishabh
~ Pondicherry Photos: Charan Singh